Monday, January 6, 2020

जब सड़क से शादी तक दिखी विरोध की तस्वीर

उत्तराखंड की सीमा के आख़िरी ज़िले पिथौरागढ़ के आगर-हराली गांव की सपना टम्टा के पिता पिछले नौ साल से लापता हैं और मां गांव में ही मज़दूरी कर अपने चार बच्चों की परवरिश करती हैं.

अपने गांव से तक़रीबन 35 किमी दूर पिथौरागढ़ शहर के डिग्री कॉलेज में बीएससी में एडमिशन पाने तक के सफ़र में सपना को अनुसूचित जाति को सहायता देने की सरकारी योजनाओं का बड़ा योगदान रहा है.

लेकिन पिछले तीन सालों से उनकी छात्रवृत्ति नहीं आई है और उनकी पढ़ाई छूटने की कगार पर है.

सपना कहती हैं, ''अभी मैं बीएससी थर्ड इयर (पांचवे सेमेस्टर) में पढ़ रही हूं. जब बारहवीं में पढ़ रही थी तब भी मैंने छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किया था, फिर बीएससी के पहले साल में और दूसरे साल में भी लगातार आवेदन किया लेकिन मुझे छात्रवृत्ति नहीं मिली.''

सपना आगे कहती हैं, ''बिना छात्रवृत्ति के मेरे लिए आगे की पढ़ाई संभव नहीं है. मेरे पिता पिछले 9 सालों से लापता हैं और मां गांव के घरों और खेतों में मज़दूरी कर हमारी परवरिश कर रही हैं. मैंने इस साल भी आवेदन किया है और उम्मीद है कि मुझे छात्रवृत्ति मिल जाएगी. वरना मेरे लिए पढ़ाई जारी रखना संभव नहीं है.''

कई छात्रों ने छात्रवृत्ति मिल जाने की उम्मीद में परिचितों से कर्ज़ उठाकर अपनी पढ़ाई तो जारी रखी लेकिन लगातार छात्रवृत्ति ना मिल पाने से उनके सिर का यह कर्ज़ और गहराता जा रहा है.

उधमसिंह नगर ज़िले के खटीमा के एक छात्र बेडन पाल की भी यही कहानी है जो कि डॉक्टर अंबेडकर हॉस्टल में रह कर एसएसजे कैंपस अल्मोड़ा में योग विषय से एमए कर रहे हैं.

वो कहते हैं, ''हम किताबें नहीं ख़रीद पा रहे, योग की किताबें बहुत महंगी हैं. योग की फ़ीस भी बहुत ज़्यादा है. हमने किसी से पैसे मांगकर अपनी फ़ीस जमा की थी. अब वह मुझसे पैसे वापस मांग रहे हैं लेकिन मेरी स्कॉलरशिप अभी आई नहीं है तो मैं उन्हें पैसे कैसे वापस लौटाऊं. इन्हीं सब चिंताओं में कई बार मेरा मानसिक संतुलन भी बिगड़ जाता है.''

सपना और बेडन जैसे कई दलित छात्र हैं जिनका कहना है कि उन्हें पिछले तीन सालों से अनुसूचित जाति छात्रवृत्ति नहीं मिली है जिसके चलते या तो उनकी पढ़ाई छूटने की कगार पर है या वे पढ़ाई के लिए उठाए गए कर्ज़ में डूब गए हैं.

आर्थिक और सामाजिक रूप से अत्यंत पिछड़े इस वर्ग के छात्रों के लिए उत्तराखंड समाज कल्याण विभाग की ओर से केंद्र सरकार के पैसे से छात्रवृत्ति योजना चलाई जाती है. हालांकि उत्तराखंड समाज कल्याण विभाग का दावा है कि सत्र 2017-18 तक की सारी छात्रवृत्तियां पहले ही बांटी जा चुकी हैं.

विभाग के निदेशक विनोद गोस्वामी कहते हैं, ''सभी छात्रों को छात्रवृत्तियां दी जा रही हैं. हमने 17-18 तक का बैकलॉग पूरा कर दिया है. 16-17 में 82632 और 17-18 में 165012 छात्रवृत्तियां बांटी हैं. 18-19 के 175574 छात्रों को छात्रवृत्ति दी जानी है जिसकी प्रक्रिया चल रही है. सरकार की ओर से लगभग 74 करोड़ रुपये का फंड आ चुका है और हमने इसे ज़िला स्तर पर भेज दिया है. हमारा लक्ष्य है कि 15 जनवरी तक इसे बांट दिया जाएगा.''

जब विभाग छात्रवृत्तियां बांट चुका है तो पिछले कुछ सालों से यह कई छात्रों को मिली क्यों नहीं?

इसका जवाब देते हुए विनोद गोस्वामी कहते हैं, ''इस साल हमारे पास छात्रवृत्ति के लिए 241010 आवेदन आए. लेकिन जब उनका निर्धारित प्रक्रिया के मुताबिक़ सत्यापन किया गया तो उनमें से 81010 आवेदन ऐसे थे जो कि मानकों के मुताबिक़ नहीं थे. या तो उनके आय प्रमाणपत्र, जाति प्रमाणपत्र सही नहीं थे या दूसरी कोई कमी थी. इसलिए वे ख़ारिज हो गए. या कुछ ऐसे छात्रों ने भी फॉर्म भर दिया था जो कि योग्य नहीं थे.''

इधर, छात्रवृत्ति मिलने की उम्मीद में क़र्ज़ लेकर पढ़ाई कर रहे इन छात्रों को नहीं मालूम कि विभाग उनके आवेदन ख़ारिज कर चुका है.

छात्रों का कहना है कि जब भी वे समाज कल्याण विभाग के अधिकारियों से संपर्क करते हैं तो वे बजट ना होने की बात करते हुए आश्वासन देते हैं कि जल्द ही उनकी छात्रवृत्ति उनके खातों में आ जाएगी.

कुछ छात्र आरोप लगा रहे हैं कि छात्रवृत्ति पाने की प्रक्रिया बेहद जटिल है और इसे ऑनलाइन कर हाशिए के छात्रों के और जटिल बना दिया गया है.

पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे किशोर कुमार कहते हैं, ''मेरा गांव नेपाल सीमा पर झूलाघाट में है जो पहाड़ियों से घिरा है और वहां मोबाइल सुविधाएं बेहद लचर हैं. फ़ोन पर बात करना तक संभव नहीं हो पाता तो इंटरनेट का कैसे इस्तेमाल हो. ऐसे में कैसे कोई छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करेगा? इस तबके में ग़रीबी इतनी है कि मोबाइल, कंप्यूटर की पहुंच से लोग अब भी कोसों दूर हैं. प्रक्रिया को ऑनलाइन कर देने से सबसे अधिक ज़रूरतमंद लोग छात्रवृत्ति से वंचित हो गए हैं.''

हालांकि विभाग सफाई देता है कि ऑनलाइन हो जाने से पारदर्शिता आई है और सिस्टम में ग़लती नहीं होती.

विनोद गोस्वामी कहते हैं, ''हमने हर स्तर पर नोडल अधिकारियों की नियुक्ति की है जो कि छात्रों को छात्रवृत्ति के लिए आवेदन पर सहायता कर रहे हैं.''

प्रक्रियाओं के जटिल होने के अलावा पिछले दिनों सामने आया छात्रवृत्ति घोटाला भी ज़रूरतमंद छात्रों को छात्रवृत्ति नहीं मिल पाने की वजह रहा है. इसकी जांच के लिए राज्य सरकार ने नैनीताल हाईकोर्ट के आदेश पर एक विशेष जांच दल गठित किया है.

इस मसले पर हाईकोर्ट में दाख़िल एक जनहित याचिका की पैरवी कर रहे वकील चंद्रशेखर करगेती कहते हैं कि प्रभावशाली लोगों की मिल्कियत वाले निजी संस्थानों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए छात्रवृत्ति के आबंटन में जानबूझकर अनियमितताएं बरती गईं.

''छात्रवृत्ति के आबंटन की प्रक्रिया यह थी कि जो धनराशि केंद्र से विभाग को दी गई थी सबसे पहले उसे सरकारी संस्थानों के छात्रों में आबंटित किया जाना था. फिर राशि के शेष रहने पर सरकार द्वारा एडेड कॉलेजों के छात्रों को उसे दिया जाना था और फिर भी अगर राशि बचती तो उसे निजी संस्थानों को दिया जाना था. लेकिन यहां प्रक्रिया की अनदेखी हुई और निजी संस्थानों को सबसे पहले छात्रवृत्ति की राशि दे दी गई और सरकारी संस्थानों के ज़रूरतमंद छात्र इससे वंचित रह गए.''

वे कहते हैं, ''अपनी जांच के दौरान हमें ऐसे निजी संस्थान भी मिले जहां सभी आरक्षित वर्गों से थे जिन्हें छात्रवृत्ति के लिए ही प्रवेश दिलाया गया था. जबकि ऐसा संभव नहीं हो सकता कि सभी आरक्षित वर्ग के छात्रों का एक ही संस्थान में प्रवेश हो. अपना काम धंधा या नौकरी कर रहे लोगों को संस्थानों की तरफ से कहा गया कि उन्हें बिना कक्षा में आए डिग्री मिल जाएगी और संभवत: कुछ पैसा भी दिया गया हो. इससे वे छात्र छात्रवृत्तियों से वंचित हो गए जो असल में ज़रूरतमंद थे.''

करगेती का आरोप है कि राजनीतिक नेतृत्व और विभागीय अधिकारियों की सहमति के बिना यह सब संभव नहीं था.

इस बीच, बीते 2 दिसंबर से देहरादून के परेड ग्राउंड में छात्रवृत्ति से जुड़ी अनियमितताओं के इस मसले पर उत्तराखंड संवैधानिक अधिकार संरक्षण मंच के कार्यकर्ता अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं. संगठन का आरोप है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सरकारों ने अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के हितों की लगातार अनदेखी की है.